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Thursday 6 October 2016

माँ कालरात्रि

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मां कालरात्रि की पूजा नवरात्रों के सातवें दिन में की जाती है.माँ दुर्गा के इस सातवें रूप को कालरात्रि कहा जाता है, माँ कालरात्रि अपने भक्तों को हमेशा शुभ फल प्रदान करने वाली होती हैं जिसके कारण इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है.
मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में बहुत भयानक है, इनका वर्ण अंधकार की भाँति बहुत काला है, केश बिखरे हुए हैं, कंठ में विद्युत की चमकदार माला है, माँ कालरात्रि के तीनो नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह विशाल और गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह किरणें निकलती रहती हैं, इनकी नासिका से श्वास तथा निःश्वास से अग्नि की ज्वालायें निकलती रहती हैं. माँ कालरात्रि का यह भय उत्पन्न करने वाला स्वरूप केवल पापियों का नाश करने के लिए है.

देवी कालरात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है जो अमावस की रात्रि से भी ज्यादा काला है. मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे मां कालरात्रि अपने भक्तों पर कृपा की दृष्टि रखती हैं. देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए और हवाओं में लहरा रहे होते हैं. देवी काल रात्रि अपने वाहन गर्दभ पर सवार होती हुईं अद्भुत दिखाई देती हैं. देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए बहुत शुभ है.
माँ कालरात्रि की पूजा विधि
सप्तमी की पूजा अन्य दिनों की तरह ही होती लेकिन रात्रि में विशेष विधान के साथ माँ कालरात्रि की पूजा की जाती है. इस दिन तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को चढ़ाई जाती है. सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है. पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा कहा गया हैं उसके अनुसार सबसे पहले कलश की पूजा करनी चाहिए.
नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी-देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए. दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का बहुत महत्व बताया गया है. इस दिन से भक्तो के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्त पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन के लिए पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं.
तंत्र पूजा के लिए कालरात्रि
नवरात्रों में सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों व साधको के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. देवी का यह रूप ऋद्धि सिद्धि प्रदान करने वाला होता है. सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक आधी रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं.

कालरात्रि मंत्र
एक वेधी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।


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Wednesday 5 October 2016

माँ कात्यायनी

Maa Katyayani

माँ भगवती दुर्गा के छठें रूप का नाम माँ कात्यायनी है। महर्षि कात्यायन के घर उनकी पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थी। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी तक तीन दिन उन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण करके दशमी को महिषासुर का वध किया था। इनका स्वरूप बहुत ही भव्य एवं दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला, और भास्वर है। कात्यायनी माँ की चार भुजाएँ हैं। माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है नीचे वाला वरमुद्रा में, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प तथा नीचे वाले हाथ में तलवार सुशोभित है। कात्यायनी माँ का वाहन सिंह है। दुर्गा पूजा के छठे दिन इनके इसी स्वरुप की पूजा की जाती है।

माँ कात्यायनी की भक्ति और साधना से मनुष्यों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फ़लों की प्राप्ति हो जाती है।
नवरात्र के पावन समय में छठे दिन धर्म,कर्म, मोक्ष को प्रदान करने वाली माँ कात्यायनी की पूजा वंदना का विधान है। साधक , आराधक जन इस दिन मां का स्मरण करते हुए अपने मन को आज्ञा चक्र में स्थापित करते हैं। योग साधना में आज्ञा चक्र का बहुत महत्व होता है। मां की षष्ठम् शक्ति कात्यायनी नाम का रहस्य है। एक कत नाम के ऋषि हुआ करते थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए इन्हीं कात्य गोत्र में महर्षि कात्यायन हुए उनकी तपस्या के फलस्वरूप उनकी इच्छा के अनुसार भगवती ने उनके यहां एक पुत्री के रूप में जन्म लिया।
भगवती कात्यायनी ने शुक्लपक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी तक ऋषि कात्यायन की पूजा ग्रहण की और फिर महिषासुर का वध किया था। जिसके कारण छठी देवी का नाम कात्यायनी पडा। माता कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत विशाल एवं दिव्य है।
नवरात्र का छठा दिन भगवती कात्यायनी की उपसना का दिन है। श्रद्धालु व साधक अनेक प्रकार से भगवती की कृपा प्राप्त करने के लिए व्रत व साधना करते हैं।जगदम्बा भगवती के साधक पूरे एवं श्रद्धा भाव से उनके कात्यायनी स्वरूप की आराधना कर उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को कृतार्थ करते हैं।
साधना विधान –
सर्वप्रथम कात्यायनी माँ की मूर्ति अथवा तस्वीर को लकडी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर स्थापित करें। तदुपरांत चौकी पर मनोकामना गुटिका रखें। दीपक जलाये रखें। तदुपरांत हाथ में लाल फूल लेकर मां का ध्यान करें।
ध्यान
वन्दे वांछित मनोरथार्थचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढचतुर्भुजाकात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णवर्णाआज्ञाचक्रस्थितांषष्ठम्दुर्गा त्रिनेत्राम।
वराभीतंकरांषगपदधरांकात्यायनसुतांभजामि॥
पटाम्बरपरिधानांस्मेरमुखींनानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयुरकिंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्।।
प्रसन्नवंदनापज्जवाधरांकातंकपोलातुगकुचाम्।
कमनीयांलावण्यांत्रिवलीविभूषितनिम्न नाभिम्॥
स्तोत्र
कंचनाभां कराभयंपदमधरामुकुटोज्वलां।
स्मेरमुखीशिवपत्नीकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां।
सिंहास्थितांपदमहस्तांकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
परमदंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति,परमभक्ति्कात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती,विश्वभर्ती,विश्वहर्ती,विश्वप्रीता।
विश्वाचितां,विश्वातीताकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानंदकां बीज जप तोषिते।
कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहíषणीकां धनदाधनमासना।
कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मूत्रपूजिताकां बीज धारिणी।
कां कीं कूंकै क:ठ:छ:स्वाहारूपणी॥
कवच
कात्यायनौमुख पातुकां कां स्वाहास्वरूपणी।
ललाटेविजया पातुपातुमालिनी नित्य संदरी॥
कल्याणी हृदयंपातुजया भगमालिनी॥
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Tuesday 4 October 2016

माँ स्कन्दमाता

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माँ दुर्गा के पाँचवे स्वरुप को स्कन्द माता के रुप में माना जाता है। भगवान स्कन्द की माता होने के कारण इन्हें स्कन्द माता कहते हैं। स्कन्दमाता देवी की चार भुजाएँ हैं। ये दाहिनी तरफ़ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं और बायीं तरफ़ की ऊपर वाली भुजा वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है। उसमें भी कमल का पुष्प ली हुई हैं। स्कन्दमाता कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। जिसके कारण भी इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। स्कन्दमाता का वाहन सिंह भी है। नवरात्रे पूजन के पाँचवे दिन स्कन्दमाता माता की उपासना की जाती है। स्कन्द माता की उपासना से बालरुप स्कन्द भगवान की भी उपासना स्वयं हो जाती है।
माँ स्कन्द माता की आराधना से भक्तो की सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
नवरात्र के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की पूजा एवं साधना का विधान वर्णित है। मां के पांचवें स्वरूप को स्कंद माता के नाम से जाना जाता है। पांचवें दिन की साधना में साधक अपने मन-मस्तिष्क का विशुद्ध चक्र में रखते हैं। सिंहारूढा मां पूर्णत: शुभ हैं। साधक मां की उपसना में निरत रहकर निर्मल चैतन्य रूप की ओर अग्रसर होता है। उसका मन भौतिक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से छुटकारा पाता है तथा पद्मासना मां के श्री चरण कमलों में समाहित हो जाता है। मां की आराधना से मन की सारी कुण्ठा जीवन-कलह और द्वेष भाव खत्म हो जाता है। मृत्यु लोक में ही स्वर्ग की भांति परम शांति एवं सुख का अनुभव प्राप्त होता है। साधना के पूर्ण होने पर मोक्ष का मार्ग खुद ही खुल जाता है।
मां की उपासना के साथ ही भगवान स्कंद की उपासना स्वयं ही पूरी हो जाती है। क्योंकि भगवान बालस्वरूप में सदा अपनी मां की गोद में रहते हैं। भवसागर के दु:खों से छुटकारा पाने के लिए इससे दूसरा आसान और साधन कोई नहीं है।
श्रद्धालु भक्त व साधक अनेक प्रकार से भगवती की कृपा प्राप्त करने के लिए व्रत व साधना करते हैं। कुंडलिनी जागरण के भक्त इस दिन विशुद्ध चक्र को जाग्रत करने की साधना करते हैं। जगदम्बा भगवती के भक्त श्रद्धा भाव से उनके स्कंदमाता स्वरूप की पूजा करके उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को कृतार्थ करते हैं।
 साधना विधान –
सबसे पहले स्कंदमाता की मूर्ति या तस्वीर को लकडी की चौकी पर पीले कपड़े को बिछाकर उस पर कुमकुम से ॐ लिखकर उसे स्थापित करें। मनोकामना की पूर्णता के लिए चौकी पर अपनी मनोकामना से गुटिका रखें। हाथ में पीले पुष्प लेकर मां स्कंद माता के दिव्य ज्योति स्वरूप का ध्यान माँ का ध्यान करें।

ध्यान
वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजास्कन्धमातायशस्वनीम्॥
धवलवर्णाविशुद्ध चक्रस्थितांपंचम दुर्गा त्रिनेत्राम।
अभय पदमयुग्म करांदक्षिण उरूपुत्रधरामभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानाकृदुहज्ञसयानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणिरत्नकुण्डलधारिणीम।।
प्रभुल्लवंदनापल्लवाधरांकांत कपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांजारूत्रिवलींनितम्बनीम्॥
स्तोत्र
नमामि स्कन्धमातास्कन्धधारिणीम्।
समग्रतत्वसागरमपारपारगहराम्॥
शिप्रभांसमुल्वलांस्फुरच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्‍‌नभास्कराजगतप्रदीप्तभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपाíचतांसनत्कुमारसंस्तुताम्।
सुरासेरेन्द्रवन्दितांयथार्थनिर्मलादभुताम्॥
मुमुक्षुभिíवचिन्तितांविशेषतत्वमूचिताम्।
नानालंकारभूषितांकृगेन्द्रवाहनाग्रताम्।।
सुशुद्धतत्वातोषणांत्रिवेदमारभषणाम्।
सुधाíमककौपकारिणीसुरेन्द्रवैरिघातिनीम्॥
शुभांपुष्पमालिनीसुवर्णकल्पशाखिनीम्।
तमोअन्कारयामिनीशिवस्वभावकामिनीम्॥
सहस्त्रसूर्यराजिकांधनज्जयोग्रकारिकाम्।
सुशुद्धकाल कन्दलांसुभृडकृन्दमज्जुलाम्॥
प्रजायिनीप्रजावती नमामिमातरंसतीम्।
स्वकर्मधारणेगतिंहरिप्रयच्छपार्वतीम्॥
इनन्तशक्तिकान्तिदांयशोथमुक्तिदाम्।
पुन:पुनर्जगद्धितांनमाम्यहंसुराíचताम॥
जयेश्वरित्रिलाचनेप्रसीददेवि पाहिमाम्॥
कवच
ऐं बीजालिंकादेवी पदयुग्मधरापरा।
हृदयंपातुसा देवी कातिकययुता॥
श्रींहीं हुं ऐं देवी पूर्वस्यांपातुसर्वदा।
सर्वाग में सदा पातुस्कन्धमातापुत्रप्रदा॥
वाणवाणामृतेहुं फट् बीज समन्विता।
उत्तरस्यातथाग्नेचवारूणेनेत्रतेअवतु॥
इन्द्राणी भैरवी चैवासितांगीचसंहारिणी।
सर्वदापातुमां देवी चान्यान्यासुहि दिक्षवै॥

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Saturday 1 October 2016

मां ब्रह्मचारिणी


मां दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी जिसका दिव्य स्वरूप व्यक्ति के भीतर सात्विक वृत्तियों के अभिवर्दन को उजागर करता है। मां ब्रह्मचारिणी को सभी विधाओं का ज्ञाता माना जाता है। मां के इस रूप की पूजा से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है। तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम जैसे गुणों में भी वृद्धि होती है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी अर्थात तप का आचरण करने वाली। मां ब्रह्मचारिणी के इस दिव्य स्वरूप का पूजन करने मात्र से ही भक्तों में आलस्य, अंहकार, लोभ, असत्य व ईष्र्या जैसी दुष्प्रवृत्तियां दूर होती हैं। मां के मंदिरों में नवरात्र के दूसरे दिन माता के ब्रह्मचारिणी रूप की पूजा होती है। माता अपने भक्तों को जीवन की मुश्किल  परिस्थतियों में भी आशा व विश्वास के साथ कर्तव्य-पथ पर चलने की दिशा प्रदान करती है। इस दिन माता का ध्यान ब्रह्मा के उस दिव्य चेतना का बोध कराता है जो हमे पथभ्रष्ट, चारित्रिक पतन व कुलषित जीवन से मुक्ति दिलाते है और पवित्र जीवन जीने की कला सिखाती है। माता का यह स्वरूप समस्त शक्तियों को एकाग्र कर बुद्धि विवेक और धैर्य के साथ सफलता की राह पर आगे बढऩे की सीख देता है। ब्रहमचारिणी मां दुर्गा को द्वितीय शक्ति स्वरूप है। माता ब्रह्मचारिणी स्वेत वस्त्र पहने दाएं हाथ में अष्टदल की माला और बांए हाथ में कमण्डल लिए हुए सुशोभित है। ग्रंथों के अनुसार माँ हिमालय की पुत्री थीं तथा नादर के उपदेश के बाद यह भगवान को पति के रूप में पाने के लिए इन्होंने कठोर तपस्या की। जिसके कारण इनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा। इन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए 1000 वर्षों तक सिर्फ फल खाए तथा अगले 3000 वर्ष की तपस्या सिर्फ पेड़ों से गिरी हुई पत्तियां को खाकर की। इसी कड़ी तपस्या के कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी व तपस्चारिणी भी कहा गया है। कठोर तप के बाद इनका विवाद भगवान शिव से हुआ। माता सदैव आनन्दमयी रहती हैं।
पाठ करनें के बाद मां ब्रह्मचारिणी मंत्र, स्तोत्र पाठ, कवच का जाप करें. वे इस प्रकार हैं.
“मंत्र”
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
“मां ब्रह्मचारिणी का स्तोत्र पाठ”
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
“मां ब्रह्मचारिणी का कवच”
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
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Friday 30 September 2016

माँ शैलपुत्री

माँ दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण इन्हें शैल पुत्री के नाम से जाना गया। माँ भगवती का सवारी का वाहन बैल है। माँ शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। अपने पिछले जन्म में ये सती नाम से प्रजापति दक्ष की बेटी थी । इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। पूर्व जन्म की तरह इस जन्म में भी भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में माता शैलपुत्री का महत्त्व और माँ शैलपुत्री की शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्रे – पूजन में सबसे प्रथम माँ शैलपुत्री  की पूजा व उपासना की जाती है।
सभी की मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए नवरात्र के पावन पर्व में पूजी जाने वाली नौ दुर्गाओं में सबसे प्रथम माता शैलपुत्री का ही नाम आता है। इस पर्व के पहले दिन बैल पर सवार भगवती मां के पूजन व अर्चना का विधान है। मां शैलपुत्री के दाहिने हाथ में कमल का पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। उस समय इनका नाम सती रखा गया। इनका विवाह भगवान् शंकर जी से हुआ था। शैलपुत्री देवी समस्त शक्तियों की स्वामिनी हैं। योगी और साधक-जन नवरात्र के पहले दिन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं और योग साधना का यहीं से प्रारंभ होना कहा गया है।
साधना विधि –
सबसे पहले माता शैलपुत्री की मूर्ति अथवा तस्वीर स्थापित करें और उसके नीचें लकडी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछायें। इसके ऊपर केसर से शं लिखें और उसके ऊ पर मनोकामना पूर्ति गुटिका रखें। उसके बाद  हाथ में लाल पुष्प लेकर शैलपुत्री देवी का ध्यान करें। मंत्र इस प्रकार है-

ध्यान
वंदे वांच्छितलाभायाचंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्॥
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।
पटांबरपरिधानांरत्नकिरीटांनानालंकारभूषिता॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांतकपोलांतुंग कुचाम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितंबनीम्॥
स्तोत्र
प्रथम दुर्गा त्वहिभवसागर तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
त्रिलोकजननींत्वंहिपरमानंद प्रदीयनाम्।
सौभाग्यारोग्यदायनीशैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
कवच
ओमकार: में शिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार,पातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी॥
श्रीकार:पातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी।
हूंकार:पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत॥
फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा।
मां दुर्गा का द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी
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